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उत्तराखण्ड पलायन एक राष्ट्रीय समस्या

कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan
उत्तराखण्ड पलायन एक राष्ट्रीय समस्या 

उत्तराखंड भारत देश का एक छोटा सा राज्य अनेको धार्मिक स्थल सुन्दर मनोहर प्राकतिक दृश्य मगर अपने ही लोगो से वंचित। दशको तक चले आन्दोलन के बाद 9 नवम्बर 2000 को एक नया राज्य अस्तित्व में आया। आंदोलनकरियो और राज्य की आम जनता को लगा उनका बरसो का सपना साकार हो गया। अलग राज्य के बनने के बाद अब विकास की रेलगाडी पहाड़ो की ऊचाईयों तक पहुँच जाएगी। मगर आज 17 साल बाद भी हालत जस के तस है। पलायन आज भी बदस्तूर जारी है। 
उत्तराखंड सरकार  के अर्थ एवं सांख्यिकी विभाग द्वारा जारी एक सरकारी आंकड़े के अनुसार जब से नए राज्य का गठन हुआ है तब से लेकर उत्तराखंड के 2 लाख 80 हजार से ज्यादा मकानों पर ताले लग चुके हैं। एक गैर सरकारी संस्था 'पलायन : एक चिंतन’ के द्वारा तैयार किए गए आंकड़ों के अनुसार राज्य बनने के बाद से 16 सालों में 32 लाख लोगों ने पहाड़ से पलायन कर चुके है। सरकार और विपक्षी पार्टियां इस पलायन और विस्थापन पर मौन साधे हुए हैं 

मुझे आज भी कुछ साल पहले की एक घटना जब एक गाँव मे जहाँ कभी 10-15 परिवार रहा करते थे आज बस एक बूढ़ी माँ और उसकी एक पोती ही बचे है। जब उस बूढ़ी माँ से बात हुई तो उसने बताया के गाँव के सभी लोगो ने शहर में घर बना लिए और उसके बेटे काम के लिये दिल्ली में चले गए। ज्यादा पढ़े लिखे नही थे तो उसके बेटे मेहनत मजदूरी से अपना गुजार कर रहे थे। और वो अम्मा ने भी एक गाय पाली हुई थी । जिससे थोड़ा बहुत गुजारा हो जाता था । सामने ही खेत था जिसमे साक सब्जी लग जाती थी। उस अम्मा ने बातो ही बातो में बताया के कैसे एक रात बाघ ने उसके कुक्कर ( कुत्ते) के गले को पकड़ लिया था। जैसे तैसे ईश्वर की कृपा से वो बचकर घर मे आ पाया। पुराने दिनों को याद कर आज भी उनकी आँखें भर आती है। उनका हरा भरा गांव जिसमे आज ज्यादातर खंडहर ही बचे है। ये कहानी किसी एक बूढ़ी माँ या किसी एक गाँव की नही है। आज उत्तराखंड के ज्यादातर गाँव मे सिर्फ बूढ़े ही बचे है। जो कुछ मजबूरी के कारण तो कुछ अपने गाँव अपनी जन्मभूमि से लगाव के कारण
ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड में पलायन इन 17 वर्षों की ही समस्या है. काफी पहले से लोग रोजी रोटी के लिए मैदानों का रुख करते रहे हैं. एक लाख सर्विस मतदाता इस राज्य में है. यानी जो सेना, अर्धसैनिक बल आदि में कार्यरत है. ये परंपरा बहुत पहले से रही है. 

युवा आबादी गांवों से कमोबेश निकल चुकी है. बेहतर शिक्षा, बेहतर रोजगार और बेहतर जीवन परिस्थितियों के लिए उनका शहरी और साधन संपन्न इलाकों की ओर रुख करना लाजिमी है. पहाड़ो में गांव तेजी से खंडहर बन रहे हैं, रही सही खेती टूट और बिखर रही है. कुछ प्राकृतिक विपदाएं, बुवाई और जुताई के संकट, कुछ संसाधनों का अभाव, कुछ माली हालत, कुछ जंगली जानवरो के उत्पात और कुछ शासकीय अनदेखियों और लापरवाहियों ने ये नौबत ला दी है. पहाड़ों में जैसे तैसे जीवन काट रहे लोग अपनी नई पीढ़ी को किसी कीमत पर वहां नहीं रखना चाहते. 
लोग रहे भी तो कैसे ना शिक्षा , ना स्वास्थ्य, ना रोजगार, ना बिजली , सड़क जैसी बुनियादी सुविधायें, कही स्कूल नही , जहाँ स्कूल है वहाँ भवन नही , तो कही शिक्षक नही, कही अस्पताल नही तो कही अस्पतालों में डॉक्टर और दवाएं नही। दुर्गम क्षत्रो में तो हाल और भी बुरा है। ये किल्लत इस राज्य की नियति सी ही बन गयी है। गाँव तेजी से खंडहर बन रहे है, खेती टूट और बिखर रही हैं प्राकृतिक आपदाएं, संसाधनों के अभाव और शासकीय अनदेखी ने स्तिथि और विकट कर दी है।
घर की दहलीज़ पर बैठा वो बुज़र्ग जोड़ा आज भी पथराई आँखों से सड़क को देख़ते हुए  सोचता है  के ये सड़क जो शहर को जाती है लौट कर गावं भी तो आती होगी। 
ज्यादातर नेता आये तो इन गांवों से ही है मगर आज खुद भी देहरादून में सुविधाओं का आनंद लेने में व्यस्त है। बरसो से चुनावी वादा बनी गैरसैण भी इसी लिये राजधानी नही बन पायी क्योकि अब पहाड़ चढ़ने में नेताओ के भी सांस फूलते है। और राज्य की इस स्तिथि के लिये कोई एक नेता या राजनीतिक दल दोषी नही कमोबेश सबकी स्तिथि यही है सबको भूमाफियाओं, खनन माफियाओं और शराब माफियाओ की ज्यादा चिंता है। 
कुछ लोगो का कहना है कि पहाड़ी राज्य होने के कारण यहाँ सुविधाओं को पहुचा पाना संभव नही। स्विजरलैंड जैसे देशों की ओर अगर देखे तो क्या कोई कह सकता है पहाड़ पर सुविधाओं का पहुँचना मुश्किल है। अगर विदेश को ना भी देखे तो पड़ोसी राज्य हिमाचल की स्तिथि भी यहाँ से बहुत अच्छी है । उसने भी पर्वतीय संसाधनों से ही विकास किया है जैसे कृषि, पर्यटन, बागवानी, बिजली, हर्बल , योग आदि के विकास ।
क्या उत्तराखंड में ये सम्भव नही हो सकता। ऐसा नही है के लोग सिर्फ शहरी चकाचोंध के कारण यहाँ से पलायन कर रहे है।
पलायन का मुख्य कारण है बुनियादी सुविधाओं का अभाव । ज्यादातर लोग रोजगार के लिये अपनी जन्म भूमि को छोड़ कर जाते है। ज्यादातर आजीविका के लिये देहरादून, हरिद्वार, रुद्रपुर या देल्ही , एनसीआर और मुंबई की और रुख करते है। पलायन को अगर पूरी तरह से रोक नही जा सकता तो इस पर लगाम जरूर लगाई जा सकती है।इसके लिये सरकारों को विशेष ध्यान देना होगा । जमीनी स्तर पर काम करना होगा शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं पर ध्यान देना होगा साथ ही पहाड़ के इलाकों में लघु उद्योग,पर्यटन, हर्बल उधोग, कृषि, कला और शिल्प से जुड़े उधोगो को बढ़ावा देना होगा। पलायन को रोकने के लिये आपात स्तर पर सरकारों को कार्ये करना पड़ेगा।
वरना खाली गाँव तस्करों के लिये वरदान साबित हो रहे है। जंगलो में लगने वाली आग और उनका अंधाधुन्द कटान जहाँ पर्यावरण के लिये खतरा है वही ये पहाड़ो पर आने वाली प्राकर्तिक आपदाओं के भी कारण है।

हालाकि हाल ही में राज्य सरकार ने पलायन के चलते खाली गावो और शहरों में बढ़ते दबाव को देखते हुए एक राज्य पलायन आयोग का गठन किया जिसका एलान खुद राज्य के मुख्यमंत्री श्री त्रिवेंद्र सिंह रावत जी ने किया।
मगर क्या राजधानी चयन आयोग की भांति  ये भी जनता को दिया एक झुन झुना तो साबित नही होगा। वास्तव में इस समस्या की गंभीरता को देखते हुए पक्ष और विपक्ष सबको मिलकर दृढ़ इच्छाशक्ति से राजनीति से परे कार्ये करने की आवश्यकता है।
हाल ही में प्रदेश के चीन की सीमा से सटे एक गाँव मे चीनी सैनिकों की घुसपैठ की खबर सुनाई दी थी। ऐसी घटनाओ का एक कारण पलायन भी है। जो इस मुद्दे की गंभीरता को समझने के लिये काफी है। तो पलायन सिर्फ एक प्रदेश और सिर्फ मानवीय भावनाओ से जुड़ा मुद्दा नही ये राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा एक राष्ट्रीय मुद्दा है । जिस पर राष्ट्रीय स्तर पर विचार होना चाहिये। और इसके समाधनो की और कार्ये करना चाहिये


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