कोशिश .....An Effort by Ankush Chauhan
आरक्षण की शुरूआत देश को स्वतंत्रता मिलने से पहले ही हो गयी थी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रामसे मैकडोनाल्ड ने जब 1932 में भारत के दलित वर्ग और दूसरे पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रस्ताव रखा तो गांधी जी ने इसका कड़ा विरोध किया. उनका पक्ष ये था कि इससे हिन्दू समुदाय विभाजित हो जाएगा.
आरक्षण आज देश मे एक ज्वलंत मुद्दा बन रहा है आज देश के अलग अलग क्षत्रो में लोग आरक्षण के लिये आंदोलन करते दिख रहे है अजीब स्तिथि है देश की जहाँ लोग आगे आने के लिये काम करने के बजाय पिछड़ा बनने के लिये आंदोलन कर रहे है। कुछ राजनीतिक दल आज आरक्षण को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे है। देश मे जगह जगह चलने वाले आंदोलन काफी हद्द तक तो राजनीतिक दलों के इशारो पर ही चलते है।
आरक्षण एक ऐसी दोधारी तलवार बन गया है जो इलेक्शन जीताता भी है और हरवाता भी है अजीब है ना जो एक समुदाय के उत्थान के लिये बना था आज राजनीत का मुद्दा बन गया है। जिसका मकसद सिर्फ अपनी राजनीतिक रोटियां सेकना है । किसी का विकास करना नहीं।
स्वन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में दलितों एवं आदिवासियों की दशा अति दयनीय थी| इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने काफी सोच समझकर इनके लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की और वर्ष 1950 में संविधान के लागू होने के साथ ही सुविधाओं से वंचित वर्गों को आरक्षण की सुविधा मिलने लगी, ताकि देश के संसाधनों, अवसरों एवं शासन प्रणाली में समाज के प्रत्येक समूह की उपस्थिति सुनिश्चित हो सके| उस समय हमारा समाज उच्च-नीच, जाति-पाति, छुआछूत जैसी कुरीतियों से ग्रसित था|
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से ही भारत में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियां शिक्षा में आरक्षण लागू है| मंडल आयोग की संस्तुतियों के लागू होने के बाद वर्ष 1993 से ही अन्य पिछड़े वर्गों के लिए नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था कर दी गई| वर्ष 2006 के बाद से केंद्र सरकार के शिक्षण संस्थानों में भी अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण लागू हो गया| इस प्रकार आज समाज का बहुत बड़ा तबका आरक्षण की सुविधाओं का लाभ प्राप्त कर रहा है, लेकिन इस आरक्षण नीति का परिणाम क्या निकला | ये भी सोचने का विषय है क्या ये सविधान में निहित उद्देश्यों को पा सका है।
आरक्षण की शुरूआत देश को स्वतंत्रता मिलने से पहले ही हो गयी थी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रामसे मैकडोनाल्ड ने जब 1932 में भारत के दलित वर्ग और दूसरे पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रस्ताव रखा तो गांधी जी ने इसका कड़ा विरोध किया. उनका पक्ष ये था कि इससे हिन्दू समुदाय विभाजित हो जाएगा.
लेकिन डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने, जो दलित नेता थे, इस प्रस्ताव को अपनी सहमति दी थी.
आख़िरकार दो बड़े नेताओं के बीच एक समझौता हुआ जिसके अनुसार दलितों के लिए आरक्षण स्वीकार किया गया. बाद में आरक्षण को स्वतंत्र भारत के संविधान में शामिल किया गया. संविधान ने सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं की खाली सीटों तथा सरकारी/सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में SC और ST के लिए आरक्षण रखा था, जो पांच वर्षों के लिए था, उसके बाद हालात की समीक्षा किया जाना तय था। मगर यह अवधि नियमित रूप से आने वाली सरकारों द्वारा बढ़ा दी गयी ।
संविधान में दलितों के लिये आरक्षण को स्वीकार किए जाने के बाद ओबीसी के लिए आरक्षण का प्रस्ताव रखा गया.
इसके लिए दिसंबर 1978 में मंडल कमीशन का गठन हुआ. मंडल कमीशन ने ओबीसी के लिए आरक्षण की सिफ़ारिश की.
इन सिफ़ारिशों को भूतपूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सरकार में आने के बाद लागू किया. इसके बाद अन्य वर्गों में भी आरक्षण का प्रावधान शुरू हो गया हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा है कि आरक्षण किसी भी स्तिथि में 50 % से ज्यादा नही हो सकता हालांकि कुछ राज्यो में यह सीमा पर हो चुकी है।
भारत की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा आरक्षण को ख़त्म करने की राय रखता है. कई लोगों का सवाल है कि आख़िर जाति के आधार पर आरक्षण कब तक जारी रहेगा
दूसरी ओर आबादी का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जो पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के पक्ष में है. उनका कहना है कि आरक्षण की ज़रूरत आज भी है
दोनों ही पक्षो की बात गौर करने लायक है क्योंकि जहाँ आरक्षण के कारण कई बार अयोग्य लोगों आगे निकल जाते है और योग्य पीछे रह जाते है तो दूसरी और सदियों से दबे , कुचले समुदाय के लिये उस भेदभाव को खत्म किये बिना आरक्षण को हटाना क्या सही है।
क्या आज समय नही आ गया है के आरक्षण की ईमानदारी से समीक्षा की जाए। और सबसे पहला पक्ष वही हो जो इसके उद्देश्य में था दलितों और पिछड़ों का उत्थान। क्या हम मौजूद आरक्षण व्यवस्था से उस लक्ष्य को प्राप्त कर पाये अगर नही तो क्यों? क्या ऐसा तो नही के आज सक्षम लोग ही इसका लाभ उठा पा रहे है और पिछड़ा और गरीब दलित आज भी वही का वही पड़ा है ।क्या उसे सही मौका मिल पा रहा है तो क्यो ना एक ऐसी व्यवस्था बनाई जाय जिसमे जो सक्षम हो जाये, किसी सम्मनित पद पर आसीन हो, उच्च पदों पर पहुच गया हो उसे आरक्षण के दायरे से बाहर करे। क्योकि तब उसे आरक्षण देने का कोई मतलब नही। और साथ ही उसके हटने से आरक्षण की सुविधा उसी के के समुदाय के निचले तबके तक पहुँच सकती है। क्योकि संसाधन सिमित है।
मगर शायद किसी का मकसद दलितों और पिछड़ों का उत्थान है ही नही , कथाकतीथ पिछडो के नेताओ का मकसद भी सिर्फ उनके नाम पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकना है। क्योकि अगर नीयत सही होती तो ऐसा कोई कारण नही था के आज़ादी कर 70 साल बाद भी सभी पिछडो को मुख्य धारा में नही जोड़ पाते । देश और समाज का सबसे ज्यादा नुकसान इनके नाम पर होने वाली राजनीति और जातियो के नेता ही करते है। क्योंकि इनका मकसद सिर्फ सत्ता पाना ही रहता है।
एक और बहुत जरूरी बात है आरक्षण विरोधियों के लिये ज्यादातर लोग कहते है के उन्हें आरक्षण के कारण नोकरी या स्कूल कॉलेज में दाखिला नही मिल पाया । तो कुछ लोगो के लिये ये सही हो सकता है मगर सबके लिये नही क्योकि अगर एक बार आरक्षण हटा भी दे तो क्या सबको नोकरी मिल जायेगी। सोचिये जरा, नही ना क्योकि हमारे देश मे इतनी सरकारी नौकरियां है ही नही, यहाँ तो 100-200 पदों के लिये लाखो आवेदन आते है तो सोचिये सबको नौकरी और दाखिले कैसे मिल सकते है। आरक्षण की आड़ में तो हमारी सरकारें अपनी 70 साल की नाकामी को छुपाने के प्रयास करती है । के वो आज तक पर्याप्त अवसर पैदा ही नही कर पाये।
अगर हम कहते है के जातीय आधार पर आरक्षण खत्म कर देना चाहिये तो वो तब तक सम्भव नही जब तक हमारे समाज मे जातीय भेदभाव समाप्त नही हो जाता। तो इसके लिये हमारे समाज को हर तबके को इंसान के रूप में स्वीकर करना होगा। भेदभाव को मन से मिटाना होगा तब हमें इस जातीय आरक्षण को पूर्ण रूप से समाप्त करने के बारे में सोचने का अधिकार होगा।
मगर साथ ही यदि आरक्षण के कारण अयोग्य लोग पदों पर आ जाते है तो वो भी गलत है सरकारों को किसी को कोई पद देने के लिये उसे उसके योग्य बनाने का प्रयास करना चाहिए ऐसा नही के 100 में से 0 वाले को भी सिर्फ इसलिये भर्ती कर लेते है कि उसकी सीट खाली है।
साथ ही अगर हम अपने आज के समाज को देखे तो भेदभाव का जातियो के साथ साथ आर्थिक आधार भी हो गया है। क्योकि आज के दौर में गरीब भी मुख्य धरा से काट सा गया है ,और वो भी किसी अछूत से काम नही, तो क्यो ना आरक्षण को आर्थिक आधार पर लागू किया जाये। और साथ ही जातिय आरक्षण में भी आर्थिक स्तिथि को आधार बनाया जाए । जो सक्षम है अच्छी स्तिथि में है किसी उच्च पद पर है तो वो सामान्य ही है। अगर किसी प्रथम श्रेणी अधिकारी को आज भी लगता है के वो पिछड़ा है और उसके बच्चो को आरक्षण का अधिकार मिलना चाहिए तो मैं नही समझता के वो कभी मुख्य धारा में आ सकता है। या आरक्षण का उद्देश्य पूरा हो सकता है। क्योकि अगर उच्च पद पर आने के बाद भी वो पिछडा है तो उसका विकास कभी हो ही नही सकता।
इसके लिये सामाजिक संघटनो और सरकारों को ईमानदारी से इसके लिये कार्ये करना होगा और समाज मे भेदभाव को खत्म करने का प्रयास करना होगा । मगर जो स्तिथ आज चल रही है तो उसमें तो समाज मे भेदभाव बढ़ ही रहा है। और शायद राजनीतिक दल अपने वोट बैंक के लिए विभिन्न समाजो के बीच बनती खाई को और ज्यादा गहरा करने का काम कर रहे है। तो उनसे तो ज्यादा उम्मीद करना गलत ही होगा। अब तो जिम्मेदारी आम नागरिकों की है के वो कैसा देश चाहते है।
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